काल के कपाल पर...


काल के कपाल पर निशान माँगता मिला,

'हल' पटक के 'हल' कोई किसान माँगता मिला;

हाथ हाथ से मिले ,मगर वो कौम बन गये,

जो जुङे थे शक्ति को,विरक्ति को उफन गये,

चमन हुए उजाङ,झाङ द्रोह के उगे वहाँ,

जहाँ थी चाह वस्त्र की, शस्त्र और कफन गये।

शब्द तीर वो लिए, कमान माँगता मिला।

काल के कपाल पर निशान माँगता मिला,

'हल' पटक के 'हल' कोई किसान माँगता मिला।

हाङ-माँस का शरीर , वर्ग-वर्ण बन गया,

दर्द से डिगा नहीं, कथन से भाल तन गया,

बन गया असत्य तथ्य,दुर्दशा दिशा बनी,

'समूह' 'झुंड' बन गया, 'बयान' बन 'वचन' गया,

चला था 'घर' की चाह में, 'मकान' माँगता मिला;

काल के कपाल पर निशान माँगता मिला,

'हल' पटक के 'हल' कोई किसान माँगता मिला।

कौन माँग कर रहा? कहाँ पर आग लग गयी,

सिगार सा धुआँ उठा कि बस्तियाँ भभक गयीं,

दुबक गयी है फिर पुकार , हार कर हुंकार से,

पेट हँस रहा, कि भूख किस गली खिसक गयी;

मिट्टी का बुत, अपने लिए मैदान माँगता मिला।

'रुपक' हदों को तोङती,उङान माँगता मिला।

काल के कपाल पर निशान माँगता मिला,

'हल' पटक के 'हल' कोई किसान माँगता मिला।

रुपेश पाण्डेय 'रुपक'

Comments

Unknown said…
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Rupesh Pandey said…
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