कहने को , जश्न-ए-बहाराँ है


कुछ नाम ऐसे होते हैं जो स्वयं में एक संस्था बन जाते हैं, कारण बेशक उनका उत्क्रष्ट प्रदर्शन ही होता है, किंतु इनका कद इतना ऊँचा हो जाता है कि उम्मीद से कम कुछ भी सहन नहीं होता चाहने वालों को, सिनेमा जगत में ऐसे कुछ नाम हैं,मणि रत्नम, संजय लीला भंसाली, नागेश कुकनूर, और आशुतोष गोवारीकर, इसे संयोग कहें या कुछ और पर मणि रत्नम को छोङ बाकि तीनों ही निर्देशक अपनी साख के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाये पहले साँवरिया, फिर 'बाँम्बे टू बैंकाक' और अब 'जोधा अकबर'..सबसे पहले तो आशुतोष को सैकङों बधाईयाँ जिन्होंने ऐसा विषय चुना जो भारतीय सिनेमा में कमाई के नज़रिये से बहुत ही कम सफल हो सका है, ध्यान दिया जाए तो मुगल-ए-आज़म के बाद शायद ही कोई ऐतिहासिक प्रष्ठ भूमि पर बनी फिल्म सफलता के परचम गाङ पाई है, बीच में कुछ छोटी मोटी कोशिशें सफल हुईं जैसे '1942..a love story' या 'लगान' किंतु ये भी इतिहास के इर्द गिर्द रची गईं प्रेम कथायें ही थीं,जब विदेशी फिल्मकार 'Gladiator''Troy'' जैसी कालजयी फिल्में बनाते हैं हम तारीफें करते नहीं थकते किंतु भारतीय सिनेमा में बात पेङों के ईर्द गिर्द ही घूमती रह जाती है,ऐसे में 'फराह खान' और 'एकता कपूर' जैसी कुछ महान हस्तियाँ आम दर्शकों का वास्ता देकर ऐसा मायाजाल बुनती हैं कि दर्शक उसके आगे कुछ सोच ही न पायें,और जब तक उनकी आँख खुले ये अपनी झोलियाँ भरकर निकल लें,और जब भारतीय सिनेमा पीछे मुङकर देखे तो 37 साल बाद भी वही एक नाम ज़ुबाँ पर आए 'शोले',इस नज़रिये से सोचा जाए तो 'जोधा अकबर' वास्तव में एक ईमानदार कोशिश है,फिल्म इतने बङे पैमाने पर रची गई और इतने घटनाक्रमों में बुनी गई कि शायद अपना ही बोझ सह न पाई,इतिहास की नींव पर गढी,राजनीति की ईंटों पर बनायी , संबधों के सीमेण्ट से जुङी कहानी है 'जोधा अकबर';मैंने इसे एक अलग द्रष्टिकोण से देखने का प्रयास किया है,चार अलग अलग काल्पनिक चरित्र हैं, अपने आस पास से ही लिए गये चरित्र, विकास जो मेरा सहकर्मी है अभी२ शादी कर के लौटा है और उसके लिये 'जोधा अकबर' अपने पार्टनर के साथ अच्छा समय बिताने का मौका है, शर्मा जी जो इतिहास के अध्यापक हैं वो पूरी तैयारी से आये हैं फिल्म की चीर फाङ करने के लिये, रमेश जो ऑटो चलाता है और ऐश्वर्या का बहुत बङा फैन है उसने भी स्टाल की टिकट जुगाङ ली है और बङी उम्मीदों से आया है, आदर्श जो कला में रुचि रखता है और अच्छी फिल्मों का प्रशंसक भी है,तो फिल्म शुरु होती है,और बाकियों के साथ ये चारों भी अपनी २ उम्मीदों के साथ हाल में प्रवेश करते हैं,शुरुआत होती है कुछ ऐतिहासिक तथ्यों से , शर्मा जी ये पार्ट मिस नहीं करना चाहते यहाँ आशुतोष ने समझदारी के साथ सिर्फ कुछ आधारभूत तथ्य ही बताए, जैसे बैरम खान का अकबर के गुरू की तरह युद्ध लङना,पनीपत का युद्ध , हेमू कालानी की पराजय,शर्मा जी ज़्यादा गल्तियाँ निकाल नहीं पाये, रमेश को इतिहास की थोङी जानकारी हो गई पर वो इंतज़ार में था ऐश्वर्या के आने के,विकास अपने पार्टनर को अपने आधे अधूरे इतिहास की जानकारी से प्रभावित करने में लगा था, आदर्श को छायांकन पसंद आया और फिल्म सही ट्रैक पर जाती दिखी,इसके बाद सिलसिला शुरू हुआ स्टारिंग का पहले रितिक फिर ऐश, पूरा हाल तालियों और सीटियों से गूँज उठा, शर्मा जी उदासीन रहे, रमेश की खुशी का ठिकाना नहीं था, विकास भी चुपचाप फिल्म में मग्न हो गया, आदर्श भी आनंद ले रहा था, कुछ तथ्यों और कुछ कल्पना पर रची कहानी आगे बढने लगी, घटनाक्रम रोचक और तेज़ होने लगे,शर्मा जी ने खुलकर गल्तियाँ पकङीं, रमेश को मज़ा आ रहा था क्यूंकि ऐश यहाँ मात्र शो पीस नहीं थी फिल्म की जान लग रहीं थी वो, और राजपूत राजकुमारी का किरदार बखूबी निभाया उन्होंने, रितिक भी उन्नीस नहीं रहे, कुल मिलाकर कास्टिंग इतनी ज़बरदस्त थी कि आधी फिल्म तक दर्शक कलाकारों और भव्य सेट के आकर्षण से ही बाहर नहीं आ पाये, शर्मा जी को छोङ दें तो बाकि लोग इण्टरवल तक खुश ही थे,लेकिन इण्टरवल के बाद फिल्म धीरे २ फिसलने लगी, 'अज़ीमो-शान शहंशाह' गाना जितना भव्य बनाया गया उतना ही अवास्तविक, लंबा और बोरिंग लगा, और उस गाने के बाद तो मानो आशुतोष भी थक गये, इसके बाद फिल्म की रफ्तार एकदम कम हो गई साथ ही बीच २ में आनेवाले गाने पूरी तरह बेवज़ह लग रहे थे, ड्रामा हद पर तब पहुँचा जब जंग के मैदान में जोधा भी जा पहुँची ये कितना सच है कितना नहीं ये तो इतिहासकार ही जानें लेकिन एक आम मासाला फिल्म की तरह पूरी स्टरकास्ट जंग के मैदान में जमा हो गई, फिर वही गोद में मरने वाले सीन, रोना बिलखना, अकबर का शहंशाह न रहकर रितिक बन जाना , बचकाना लगा, विकास ने भी फिल्म पर ध्यान छोङकर फिल्म के बाद की प्लानिंग शुरु कर दी, रमेश को फिल्म पूरी पैसा वसूल लगी, और वो अंत तक नज़र गङाये देखता रहा बल्कि अब मज़ा आ रहा था कि फिल्म ज़्यादा समझ आ रही है, आदर्श की प्रतिक्रिया मिश्रित रही, पर हाँ ये तय हो गया कि चालीस करोङ की लागत से बनी फिल्म इतिहास रचने नहीं जा रही है,बस एक फिल्म है, आशुतोष को फिर भी सलाम इस हिम्मत के लिये, और वैसे भी स्वदेस जैसी फिल्म बनाकर जिसने समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा दी हो उसके लिये कुछ गल्तियाँ हमेशा मुआफ हैं, एक बार ज़रुर देखें, फिर चाहे हुज़ूम में जाएं या तख्लिया।
रुपक

Comments

Hmmm..
So Rupesh has finally arrived at the territory which was originallly my forte.AGar rupesh ki ISHTYLE me kahaa jaaye to...AGAAZZZZ!!!! Aur jab Agaaz hi Itna shandaar hia to Anjaam pata nahi kaisa hogaa.....aur wiase bhi hum anjaam ka intezaar nahi karnaa chhate kyunki SAFAR hi Itna shaandaar hone jaa rahaa hia....

RUPESH, Ur diff and Unique take on J-A was really heart-warming. Trully many many more to come from ur side. ANd I'll take inspiration for writing my reviews from urs as I have done this time...
Way to go Mr. RUPAK.... :)