जोगी आया रे...




"अगर उन्होंने हमारे पास एक फिदायीन भेजा है दिखाने के लिये कि वो क्या हैं,तो हम उनके पास एक इंसान भेजेंगे दिखाने को कि हम क्या हैं"'ब्लैक एण्ड व्हाईट' के अंत में बोला गया ये संवाद फिल्म का सार लगा, कहने को देशभक्ति के पुराने ढर्रे पर ही बनी एक और फिल्म का एक आम संवाद ही है जो सिनेमा हॉल में तालियाँ बजवाने का और एक तत्कालिक मानसिक उत्तेजना पैदा करने का अचूक फॉर्मूला मात्र है, जिसका असर तीन घण्टे से ज़्यादा कभी नहीं होता,80 MM की चौङाई वाले उस अँधेरे कमरे में मन में उपजी रोशनी उस कमरे के बाहर के चकाचौंध कर देने वाले अँधेरे से हारती ही आई है।लेकिन तारीफ की बात ये है कि फिल्म में कहीं भी ग्यान का ओवरडोज़ नहीं है, विचारों को थोपने की कोशिश नहीं की गई, सारे घटनाक्रम इतनी सफाई के साथ बुने गये कि कहीं भी पकङ छूटती नज़र नहीं आती।


हर निर्देशक कभी न कभी कहता सुना जाता है कि बॉक्स ऑफिस का गणित कुछ ऐसा है कि बङे से बङे कलाकारों के पसीने छूट जाते हैं , या तो बॉक्स ऑफिस पर विजय पाकर जनता का दिल जीत लो और आर्थिक रूप से इतने समर्थ हो जाओ कि 'अपनी वाली पिक्चर बना सकूँ' या कला की पूजा के चक्कर में अपने करियर की कुर्बानी दे दूँ, ऐसा बोलने वाले अधिकतर निर्देशक भूल जाते हैं कि न तो 'सफल फिल्म' और 'अच्छी फिल्म' रेल की दो पटरियाँ हैं न ही दर्शक इतने मूर्ख जो कला की कद्र करना न जाने, सुभाष घई ने कभी भी ऐसी कोई लक्ष्मण रेखा खींचने की कोशिश नहीं की और किसी न किसी रुप में संदेश देते ही आए हैं(बिना सफलता से समझौता किये) पर यहाँ एक महान निर्देशक का टच साफ दिखाई दिया है।


मुख्य धारा में आकर बात की जाये तो फिल्म के नाम से उल्टा यहाँ रंगो का ऐसा तानाबान बुना गया है कि आँखो के रास्ते सीधा दिल में उतर जाता है, यदि एक शब्द में परिभाषित करें तो 'ब्लेक एण्ड व्हाईट' के लिये जो शब्द आता है वो है 'मरीचिका', जो नहीं है वो होने का आभास, और जो है उसका एक सुखद आश्चर्य की तरह आना।भावना शून्य चेहरा लिये और आँखो से सैकङों संवाद बोलते नुमैर काज़ी (अनुराग सिन्हा) रणदीप हुड्डा की याद दिलाते हैं, चुलबुली शागुफ्ता(अदिती शर्मा) आँखो से ही सब कुछ बोल जाती हैं , उनके पर्दे पर आते ही अम्रतामयी (अम्रता राव) अनुभूति होती है, कसा हुआ और वास्तविकता की हद तक विश्वसनीय निर्देशन बार बार मणिरत्नम की याद दिलाता है, पर एक पात्र जो किसी के होने का भ्रम नहीं कराता है वो है रंजन माथुर (अनिल कपूर) अनिल ने अभिनय की उन ऊचाईयों को छू लिया है जहाँ वो तुलनात्मक अध्ययन से ऊपर उठ चुके हैं।शेफाली 'सत्या' वाला जादू पैदा नहीं कर पायीं।एक पात्र जिसके ज़िक्र के बिना स्तंभ अधूरा रह जायेगा वो हैं गफ्फार साब (हबीब तनवीर) हबीब जी थियेटर जगत में भगवान की तरह पूजे जाते हैं किंतु रुपहले पर्दे से वो दूर ही रहे हैं, उनकी छोटी किंतु प्रभावित कर देने वाली उपस्थिति बता ही देती है कि वो अभिनय के पितामह हैं।


संगीत ज़रा हटकर और मोहित कर देने वाला है, खास तौर पर 'मैं चला..." अपने शब्दों और फिल्मांकन की वज़ह से बहुत ही सुंदर बन पङा है, गाने सूफियाना मस्ती लिये हुए हैं,रिदम के शौकीनों को वूफर और एम्लिफायर पर एक्सपेरिमेंट करने का पूरा मौका मिलेगा।कहानी बताकर उत्सुकता कम नहीं करूँगा , बस इतना ही कहना है कि यदि वाकई फिल्म देखना मकसद है तो ज़रूर जायें, साथ ही चेतावनी भी कि गर्ल फ्रेण्ड के साथ न जायें,समय और पैसे बरबाद करने के आरोपों के छीटों के साथ,आपके आँसुओं की बूँदाबाँदी पर टिप्पणी होने की संभावना है ,, जो झङप का रुप ले सकती है।

मेरा पसंदीदा द्रश्यः नुमैर के दिमाग की वो उलझन जब वो मिलिंद गुनाजी को पीटते हुए बार बार पूछता है "ज़िहादी कौन?मरने वाला या मारने वाला??" यहाँ सुभाष घई ने गज़ब का सीन बनाया है,नुमैर को मिलिंद की शक्ल में भी अपनी ही शक्ल नज़र आती है, बस वहीं एक फिदायीन मर
जाता है और एक इंसान पैदा हो जाता है।

रुपक

Comments

viveksengar said…
Dear Rupesh,

Ekdam sahi likha hai,apne ish paricched me chalchitra ke wo sare drishya ullikhit kie hai jo wakai movie ki uniqueness hain,
Aur hmm mujhe bhi woh drishya sabse accha laga "Jihadi kaun marne wala ya maarne wala" aur saamne wale ki shakl me bhee use apni shakal najar aati hain ...
Kush bhee ho koi bahut outstanding to nehi tha, but beech beech me logon ko rejuvenate karne aur next 15 Aug. pe College's aur Schools me dikhane ke liye ek aur movie mil gayi ..

Excellent Article ..
vivek singh sengar