शौर्य क्या है?


शौर्य क्या है?

32 गोलियाँ खाकर , 21 तोपों की सलामी पा लेना,

या अपने आप से लङकर तारीख को बचा लेना,

अपने विश्वास को अटल सत्य मान, भगवान को नकार देना,

या सत्य पर अटल विश्वास करके,आसमान को चुनौती देना;

शौर्य की स्टार कास्ट देखकर एक सहज उत्सुकता तो जागती है, राहुल बोस और के.के. ये ऐसे नाम हैं जो भरोसा दिलाते हैं कि दर्शकों को निराश वापस नहीं लौटना होगा, किंतु शौर्य में तो कमाल ही कर दिया है कलाकार द्वय ने,सिर्फ ये दो ही नहीं वरन हर चरित्र बखूबी बुना और निभाया गया है, जावेद जाफरी का संज़ीदगी भरा हास्य हो या मिनिशा लांबा की शरारत भरी संज़ीदगी, या अम्रता राव का छोटा किंतु प्रभावशाली प्रदर्शन, सब आवश्यक और अचूक लगते हैं,और सितारों की भीङ में भी कहानी ही सबसे बङा सितारा है, आर्मी की प्रष्ठ भूमि पर न जाने कितनी कहानियाँ गढी गयीं है किंतु अधिकतर का मकसद वीर रस से भरे रोंगटे खङे कर देने वाले सन्नी देओल नुमा संवादों की चाशनी में डुबोकर देशभक्ति पर कसीदे पढने तक सीमित रह गया, किंतु शौर्य प्रश्न उपस्थित करती है,कदाचित ये फिल्म उस श्रेणी में नहीं है जहाँ फिल्म की समीक्षा की जाए वरन परंपरा और सिद्धातों की समीक्षा करना ज़रूरी जान पङता है।जब ब्रिगेडियर प्रताप बोलते हैं "ये राष्ट्रवाद,समाजवाद,नैतिकता,मानवता सब L.O.C. से सौ किलोमीटर दूर की बातें हैं" तो ब्रिगेडियर प्रताप के संवाद में भी सच की झलक मिलती है, या कोर्ट में बोला गया वो संवाद-" हम चोटियों पर , घर से दूर अपनी हड्डियाँ गलाते हैं , ताकि तुम ए.सी. की हवा में बैठकर बुद्धिजीवियों की तरह बातें कर सको, त्यौहार मना सको, इश्क लङा सको..." कहीं भी गलत नहीं लगते, किंतु फिर भी ये सारे तर्क, कुतर्क एक ही संवाद पर आकर रुक जाते हैं कि , "राष्ट्रवाद है इसलिये राष्ट्र है...", वरना नरसंहार की इस घिनौनी रणनीति के लिये(जिसे आप कचरा साफ करना बोलते हैं) आप किसी चौराहे पर उल्टे लटके होते,शान से वर्दी में सजे बैठे ,बुद्धिजीवियों की जिरह का हिस्सा न होते, फिल्म के अंत में नाटकीयता हावी हो ही जाती है; इंसाफ मिलता है,असत्य पर सत्य की विजय होती है;जावेद खान को उसकी वर्दी वापस मिलती है, किंतु कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं,यदि हर जावेद खान को हर बार अपनी देशभक्ति साबित करनी पङी तो कितने जावेद आर्मी जॉईन करना चाहेंगे? एक अजीब सी अनकही मायूसी लगी सारे माहौल में , जैसे कोई भी खुश नहीं, कर्तव्य,ड्यूटी बन चुका है, हर अधिकारी को पङोसी के बागीचे की घास ज़्यादा हरी नज़र आ रही, Honesty जवाब माँग रही है, Integrity पिटी पिटी सी लग रही है:

न कर तू शुबा हम भी जाँबाज़ तो हैं,
मगर बाज़ आती नहीं भूख अपनी;
जिसम हम भी कर दें वतन के हवाले,
अगर काँपती न रहे रूह अपनी।
'रूपक'

Comments

Udan Tashtari said…
बढ़िया समीक्षा.
Hmm...
It seems Mr. Rupesh is improving by leaps and bounds by every outing. Really the revu is thought provoking, more so for the ppl like me who still are not privileged to watch the movie.
Certainly Rupesh, will watch this movie pretty soon and then will discuss further.
Brilliant write up...keep the gud work going....