ऊँगलियाँ उदास, पाँव पूछते नहीं पता...

बिन जली वो बिजलियाँ , जो तार से लटक रहीं,
नहर ठहर गयी है प्यास, भागती सङक रही।
ऊँगलियाँ उदास, पाँव पूछते नहीं पता,
वो कँपकँपी कपाल की गाल से ढुलक रही।

डील की दलील में, दलील के दलाल गुम,
सवाल का पता नहीं, जवाब की ढिशुम ढिशुम,
दण्ड,भेद,साम,दाम, आम आदमी के नाम,
अङा रहे यही ध्वजा , जहाँ प्रजा खिसक रही।
ऊँगलियाँ उदास, पाँव पूछते नहीं पता,
वो कँपकँपी कपाल की गाल से ढुलक रही।

बिछ गयी बिसात, हाथ आ गयी हैं चौपङें,
दब गये रिमोट, ओट में दबे हैं झोपङे,
उफन रहीं हैं नालियाँ,खनक रहीं हैं थालियाँ,
उसे खबर तलक नहीं,जिसकी दाल पक रही,
ऊँगलियाँ उदास, पाँव पूछते नहीं पता,
वो कँपकँपी कपाल की गाल से ढुलक रही।

न हड्डियाँ न पसलियाँ,ये वर्ग वर्ण जानतीं,
क्षुधा अनल में अँतङियाँ,चुनाव में डकारतीं,
देश-देश कर रहे,जो चुन रहे न लङ रहे,
'रुपक' लगीं निबौरियाँ,फिर आम की ललक रही।

बिन जली वो बिजलियाँ , जो तार से लटक रहीं ,
नहर ठहर गयी है प्यास, भागती सङक रही।
ऊँगलियाँ उदास, पाँव पूछते नहीं पता,
वो कँपकँपी कपाल की गाल से ढुलक रही।
'रुपक'

Comments

Udan Tashtari said…
सही है...
sleepingghost said…
bhai modernised hai yeh to, sab shabdo ka masti se prayaog kiye ho....