हम आज फिर भावुक हो लिये, भावुक अर्थात 'इमोशनल' जिसका तद्भव चल रहा है 'सेण्टी मारना' 'सेण्टी होना' और न जाने क्या क्या क्रियाएं लगाकर 'सेण्टी' शब्द की फजीहत की जा रही है, पहले तो ये था कि सेण्टित्व का भी एक वातावरण होता था, नदी का शांत किनारा, कमरे का अँधेरा कोना, ट्रेन का लम्बा सफर, यानि पूरा मूड बनाकर 'सेण्टी' हुआ जाता था, लेकिन आज न वो मौके रहे न वो दस्तूर हाँ 'सेण्टी होना' बदस्तूर जारी है, वर्क स्पेस में 'सेण्टी' होना 'इण्टेलिजेन्सी' हो गया है,बात बात पर 'सेण्टी मारना' कूल होने की निशानी बन गया है, ज़रा पूछ परख हुई तो आवेग में दूसरे पूछते फिरेंगे ' आज कल तो मस्त सेण्टियाप मचा रखा है!' ; खैर अब सफर में,नदी किनारे,या अँधियारे न कुछ 'सेण्टी' होता है न 'मेण्टल' बशर्ते कुछ डिपार्टमेण्टल होता दिख जाये तो आप 'सेण्टी' मत हो जाना।
चलो 'सेण्टी' की 'आईडेण्टिटी' तो बता ही दी , अब ये भी बता दें कि हम 'सेण्टी' क्यों हो गये; कुछ मौके ऐसे होते हैं कि हम पुनरावलोकन करने लगते हैं, 'मैं क्या ?हूँ' 'मैं क्यों हूँ?' 'मैं कौन हूँ?' प्रश्नवचन के इतने प्रहार कि 'क' शब्द से 'करण' 'एकता' या 'रोशन' को भी कब्ज़ियत हो जाये; शुरुआत होती है शुरु से , यानि कि 'नया साल' साल दर साल सवाल दर सवाल, 'क्या किया?' 'कहाँ थे?कहाँ आ पहुँचे?''क्या करें?''कब तक?' 'कैसे?' और न जाने 'क्या क्या....' फिर समय का पहिया घूमता है, आता है जन्म दिवस और सवालों की झङी इस बार मानकों के साथ 'इतने साल के हो गये़!!क्या किया??' 'कितना वक्त बचा अब?' 'फलाँ ने तो अब तक ये कर डाला था' और हम...???';लानतों और उलाहनाओं के सिलसिले...केक पर रखी क्रीम पिघलती है, मोमबत्ती की लौ धुआँ बनकर हवा हो जाती है,समय का पहिया घूमता है,इस बीच हर लंबे सफर में तात्क्षणिक कसमसाहट काबिज़ हो ही जाती है 'करने,'न कर पाने' और 'कर दिखाने' की 'करकराहट' कचोटती है। और भी मौके हैं , 'किसी की मैयत से लौटने पर मन में उपजा वैराग्य' 'जोङ जोङ कर जमा किया अचानक लुट जाय या खर्च करना पङ जाय तो 'खाली हाथ आये थे, खाली हाथ जायेंगे गुनगुनाना' या लाखों में एक-आद को 'बुद्ध''महावीर' अशोका' की तरह 'सत्य का ग्यान' भी हो जाता है कभी कभी , अब ये ग्यान 'SPIRIT' से उपजा या 'SPRITE' से ये तो समय की कसौटी पर कसना पङता है, इन सब 'करकराहटों' के बीच कुछ प्रश्न 'स्व' की सीमा पार कर जाते हैं, वो 'जन''जाति' 'समाज' राष्ट्र''विश्व' के हो जाते हैं, कारक कुछ भी हो सकता है, हाल ही में 'लेजेण्ड ऑफ भगत सिंह' या 'स्वदेस' देख ली हो,या कोई देशभक्ति का आर्टिकल 'देख' 'पढ' 'सुन' लिया हो, या फिर कोई राष्ट्रीय त्यौहार हो जैसे कि '१५ अगस्त'...सवाल वही बस कटघरा बङा हो जाता है, सब जिरह करते हैं पर आरोपी कोई नहीं होता, कटघरे में होते हैं 'नेता' 'सरकार' 'इतिहास बनाने वाले'...न न अगर आप सोच रहे हैं कि अब मैं क्रांतिवीर होने वाला हूँ तो रुकिये, वो सब नहीं बोलूँगा, तो भाई सवाल होते हैं 'देश''समाज''सरकार' पर, पर घूमकर आ जाते हैं खुद पर, और फिर वही 'करकराहट' और 'कसमसाहट' 'काश....मैं ये होता''काश...ये करता' 'काश की लाश पर हताश अरमानों के फूल चढायें जाते हैं,काश के पाश में बँधे 'निराश' से बस 'सेण्टी' हो जाते हैं, चलिये एक काश की ताश हम भी खेलकर देखते हैं:
काश...ऊँगली,अँगूठा होती?
"रास्ता दिखाने वाले,लोगों को अँगूठा दिखाते नज़र आते, ऊँगली उठाने वाले अँगूठा उठा उठा कर 'बेस्ट ऑफ लक' कहने लगते, मतलब 'अच्छे' 'बुरे' और 'बुरे' 'अच्छे' काम करने लगते'...ये तो रहा मेरी काश की ताश का पहला पत्ता,
अब आप की कोई हसरत हताश करती हो,
हर मोङ पर काश काश...करती हो,
तो बयान कर ही डालिये,'आओ मिलकर सेण्टियाप मचाते हैं...
'रुपक'
Comments