ख़ुदा जाने ये क्यों हुआ...


"जो कल बीत गया उसके लिये कुछ किया नहीं जा सकता,

पर आने वाले कल को बेहतर बनाने के लिये, आज को सँवारना होगा"*

*(भावनाओं पर ध्यान दें,लफ्फाज़ी पर नहीं)

राज महाराज के इसी जीवन दर्शन पर आधारित है बहुचर्चित फिल्म 'बचना ऐ हसीनों', और जीवन दर्शन का प्रेरणा स्त्रोत हैं, तीन नायिकाओं के साथ अलग अलग परिस्थिती और भावों से हुये प्रणय प्रसंग, अब ये कहना ज़्यादती होगी कि तर्क की कसौटी में क्या खरा उतरता है क्या नहीं, वास्तविक जीवन से क्या जुङा है क्या नहीं, क्योंकि कदाचित सिनेमा अधूरे सपनों को दिखाने का एक माध्यम भी है, इन सब मानदण्डों से देखा जाय तो मुफ्त में, स्विट्ज़रलैंड, सिडनी,इटली की सुंदर यात्रा करवाने के लिये चोपङा जी को बहुत धन्यवाद, और छायाकार और निर्देशक को शाबासी, हाँ इस विश्व भ्रमण के बीच तीन कहानियाँ भी हैं , कहीं लुभाती , कहीं हँसाती और कहीं पकाती हुई।

कहानी के बारे में बहुत कुछ कहा, सुना, लिखा जा चुका है, हम बात करते हैं , क्या क्या 'टेक होम' है? पहला तो...और दूसरा...और तीसरा...हम्मम...काफी ज़ोर डाला दिमागो-दिल पर कुछ भी याद नहीं आ रहा; अब आप कहेंगे कि ' भाई फिल्में होती हैं मनोरंजन के लिये, संदेश ही लेना है तो दूरदर्शन में 'व्रत्तचित्र' देख लो' ये बात भी सही है,तो हम कहाँ कहते हैं कि हमने समाज सुधार की उम्मीद रखी थी, टाईटल ही ऐसा है कि पॉज़िटिव सोचो तो रोमांस की उम्मीद जागती है, निगेटिव सोचो तो लगता है कि 'गुलशन ग्रोवर' या 'शक्ति कपूर' की हसीनों को खुल्ली चेतावनी है।

रोमांस में भी ढेर सा 'टेक होम' होता है, जैसे 'जब वी मेट' या 'जाने तू...' या चोपङा साब की ही ऐतिहासिक क्रति 'DDLJ' को ले लो। हम ठहरे पाई-पाई का हिसाब रखने वाले, तो लगता है कुछ रोमांटिक पल ही साथ ले आते, खाली वक्त मे जुगाली कर लेते,पर निकला भावनाओं का 'बुफे' वो भी आखिरी टेबल तक पहुँचते पहुँचते बेस्वाद हो लिया, स्वीट डिश के नाम पर रैपर मे लॉली पॉप पकङा दिया (दीपिका की कहानी को ऐसा ज़ल्दी में लपेटा कि जैसे बोल रहे हों , चलो शो टाईम ओवर, बाकि रास्ते में सोच लेना)।

अब 'बुफे' कि उपमा दे ही दी है तो चलिये ऐसे ही बयान कर देते हैं, सजावट तो सुभान अल्लाह मनमोहक थी(बेहतरीन द्रश्यांकन),मेज़बानों ने बङी ग़र्मजोशी से स्वागत किया ( सारे कलाकारों का अभिनय प्रशंसनीय है, खासकर रणबीर और बिपाशा, हितेन पेण्टल इस फिल्म की बेहतरीन खोज है और किस्मत बुलंद रही तो बेशक स्थापित होंगे), बेहतरीन ख़ानसामे बुलाये गये(जाने माने निर्देशक 'सलाम-नमस्ते' और 'तारारमपम' फेम सिद्धार्थ) खानदान तो है ही नामी ग़िरामी ( चोपङा बैनर) , लेकिन फिर भी स्वाद फीका ही रह गया।कुल मिलाकर फिर अपना वही पुराना जुमला दोहराने का दिल करता है 'आत्माहीन सौंदर्य,और स्वाद रहित माधुर्य' है, यदि हाल ही के सालों में 'जब वी मेट' 'तारे ज़मीं पर' 'जाने तू...' न आयीं होती तो हम मानना शुरु कर चुके थे कि समय के साथ हमारे 'इमोशन्स' ही 'ड्रेन आऊट' हो चुके हैं,कितनी भी हाई डोज़ दो फर्क नहीं पङेगा, लेकिन उदाहरण सामने हैं, जो मानसिक संबल देते है, कि वैचारिक सरलता और अभिव्यक्ति की सहजता अभी भी संबध बना लेती है, दर्शकों से :

हमें आँसुओं की उम्मीद है,

न अगर खुशी के,तो ग़म के ही,

कहीं सूख के न फट पङे,

दिल में पङ गयी जो दरार सी।

'रूपक'

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