रॉक ऑन...ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा...

'जियो अपने सपनों को' ये है संदेश युवाओं में लोकप्रिय हो चुके फरहान और उनकी 'रॉक ऑन' टीम का,सबसे पहले तो टीम को बधाईयाँ विश्व में प्रतिष्ठत 'रोलिंग स्टोन्स' पत्रिका के मुखप्रष्ठ में आने के लिये, ए. आर. रहमान के बाद ये दूसरे भारतीय हैं जिन्हे यह गौरव प्राप्त हुआ है।

युवाओं की प्रेरणा बन चुके फरहान हमेशा ही कुछ नया और सफल लेकर आते हैं,और उसे लोकप्रिय बना देते हैं।
'रॉक ऑन' भी अपवाद नहीं है, जब शीर्षक ही इंगित करे कि कहानी है संगीत और उसके जुनून की तो बात शब्दों में न रहकर सुरों में बहने,बहकने लग जाती है, चाहे फिल्म की शुरुआत में टेम्पो बनाता, 'सोचा है......ये तुमने क्या कभी' गीत हो या एक यायावर युवा की छोटी किंतु महत्वपूर्ण बातों को बयान करता 'मेरी लॉण्ड्री का एक बिल...' तारीफ करनी होगी जावेद अख्तर जी कि जिन्होंने फिरसे अपनी विलक्षण लेखनी का लोहा मनवा दिया, और 'शंकर- एहसान-लॉय' की जो अब सफलता का पर्यायवाची बन चुके हैं।

जुनून और जज़्बातों से बाहर आकर बात करें तो वाकई समीक्षा करना ज़रा मुश्किल जान पङता है, 'रॉक ऑन' किनारे पर खङे होकर अवलोकन करने जैसा कुछ भी नहीं देती, ये आमंत्रित करती है अपनी लहरों के उच्चावचन में डूबने उतराने और खो जाने के लिये, जो कि यदि आप न करना चाहें तो ये आपको अँधेरे कमरों में कान फोङते कुछ पागलों के मिलन समारोह से अधिक कुछ भी नहीं लगेगा। जीवन के मशीनीकरण और आर्थिक विवशताओं के चलते समझौतों और भावनाओं के दमन की कहानियाँ आती रहीं हैं,और आने वाले समय में इनकी संख्या बढने ही वाली है, दीगर है कि सिनेमा समाज का आईना है,और समाज आर्थिक विवशताओं और मशीनीकरण के मायाजाल में बुरी तरह फँसता जा रहा है, कारण है कि भावनाओं को भी हम कैप्सूल की तरह डोज़ेज़ में लेना चाह रहें हैं, सब कुछ समय सारणी-बध्द और सतही होता जा रहा है, धैर्य की समय सीमा और सहन सीमा दोनों ही घट रहे हैं।

प्रदर्शन की बात करें तो हर ओर फरहान ही फरहान हैं, कमाल का अल्हङपन काबिल-ए-तारीफ संज़ीदगी, अर्जुन रामपाल ने पूरा न्याय किया 'जो' के किरदार के साथ, पूरब कोहली ने अपने खिलंदङ अंदाज़ में आकर्षित किया, तो 'केनी' ने एक 'रॉक स्टार' के लुक को अमली जामा पहनाया, 'सास बहू' सीरियल्स के चक्रवयूह को तोङती प्राची देसाई ने अपने सधे हुये अभिनय और नयनाभिराम सौंदर्य से आकर्षित किया है।कुल मिलाकर फिल्म स्थापित मान्यताओं को तोङती है, और सिनेमा में प्रयोग का साहस रखने वालों को एक संबल देती है।

ये कहते सुना था,कि बादल फटा था,
गया भागता भीङ के साथ मैं;

न मुखबिर मिला,न अँधेरा छँटा था
थी अफवाह अँधों की बारात में,

बहुत खो दिया,भेङ की दौङ में,
मगर राख ही राख थी हाथ में,

जो सपनों को जीता मुक़द्दर न खोता,
लकीरों से करता रहा बात मैं।
'रूपक'

Comments

Sajeev said…
really an excellent film आवाज़ ne bhi ise recemend kiya hai
HI Buddy!!
As u must be knowing that my revu is still pending on this pathbreaking movie. As always..U have inspired me to write its revu ASAP. Truly agree with u on most of the point. Leaving ROCK-backdrop story, I guess any intelligent movie based on frens wud definitely touch the heart of youths, after all its frens on which we thrive on.
Gr88 job..... One suggestion:
Always end ur revu/article with a KAVITA of urs, it shud be ur punch line that encapsulates the gist of the story.
C ya....
Take care!!
Unknown said…
I Know "RUPAK" is too intelligent he has an power to convert any situation by there poems he is an great poet and I feel my self luckey that I have spend my best student life time with him and also proud myself to have an friend like you "RUPAK" good RUPAK keep it up because we get universal truths and reality on your poems.........