"बङे सपने छोटे शहरों में ज़्यादा बिकते हैं,क्योंकि वहाँ की बोरिंग ज़िंदगी को चटपटा बनाने के लिये ख़ूबसूरत सपनों का सहारा लेना ही पङता है..."
"जब सपने टूटते हैं तो उनकी गूँज का असर गहरा होता है.."
"सपने देखते हैं तब हमें कोई नहीं बताता कि उनके बदले हमें कितना कुछ खोना पङेगा.."
नहीं नहींमैं पाँचवीं कक्षा का हिंदी का कोई प्रश्नपत्र हल नहीं कर रहा हूँ "सपने" शब्द का वाक्यों में प्रयोगवाला। ये तो सपनों की दुनिया की हकीकत बताने वाली बहुचर्चित फिल्म 'फैशन' के 'आदि' 'मध्य' और अंत' के वो संवाद हैं जो पूरी फिल्म का खाका बयान करते हैं, प्रबंधन के छात्रों को पूरा B.C.G. Matrix और Product Life Cycle समझाने वाली फिल्म है फैशन,छोटे शहर में रहकर बङे सपने देखने और उन्हें पूरा करने का माद्दा रखने वाली 'मेघना माथुर' की कहानी बङे शहर की भीङ में खो जाने वाली कहानी नहीं है,'मेघना' के सपने भरपूर उङान भरते हैं,लेकिन तभी तक जब तक वो अपनी पहचान कायम रख पाती है, पहचान आसमान में उङते हुए कदम ज़मीं पर रखने की, पहचान मॉडल बनने की चाहत रखने वाली हज़ारों लङकियों से अलग होने की,पहचान सफलता से अधिक अपने अस्तित्व,अपने नारीत्व,और आत्म-सम्मान को महत्ता देने की,
दुनिया की नज़रों मे 'मेघना' अपनी सफलता का चरम तब हासिल करती है जब वो 'शोनाली' को उसके आसन से पदच्युत कर देती है, या मेघना के ही शब्दों में "ऐसा लग रहा था कि सारी दुनिया को मेरे अलावा कुछ दिखायी ही नहीं दे रहा था" , किंतु असल में उसका पतन तो तभी शुरू हो जाता है जब वो 'मानस' से आवेश में ये बोलकर घर छोङ देती है कि 'सफलता के बारे में हमेशा वही लोग भाषण क्यों देते हैं जिन्होंने सफलता कभी हासिल ही नहीं की' और 'मानस' के जवाब '...क्योंकि वो सफलता के पीछे पागल नहीं होते' को अनसुना कर देती है , बाहर की आवाज़ को अनसुना करते ही शुरु होती है उस सफलता की अंधी दौङ जिसके मानदंड और मापदंड न भागने वाले को पता होते हैं, न भगाने वाले को, मंज़िल और रास्ते दोनों ही मायने खो देते हैं,और सफर की परिणति होती है आत्मपलायन पर, 'मेघना' भागती है वहाँ तक जहाँ "उसे खुद की भी आवाज़ सुनायी न दे" पतन के चरम बिंदु पर,भटकी हुई 'मेघना' और 'छोटे शहर की मेघना' का सामना होता है, और आत्मग्लानि संजीवनी का काम कर जाती है, 'अपने आप से अपना ही साथ छूट जाने' का बोझ ढो रही 'मेघना' को उसके पिता 'फिसलकर फिरसे उठने' की ताकत देते हैं,और शुरु होती है वो लङाई जहाँ सफलता किसी और के चश्मों,खाँचों,और परिभाषाओं की मोहताज नहीं रह जाती।
सपनों के सपने से बाहर आकर बात करें तो कहना होगा 'मधुर तुमने फिरसे कर दिखाया', मुख्य धारा के वास्तविक सिनेमा के पर्याय बन चुके मधुर अपने पुराने प्रयासों से कहीं भी उन्नीस नहीं पङे हैं,उच्च वर्ग की बनावटी,खोखली ज़िंदगी की परतें मधुर हमेशा ही खोलते रहे हैं,उच्च वर्ग की चमक-दमक के नीचे छुपी सङाँध दिखाते समय एक मध्यमवर्गीय की द्रष्टि साफ दिखाई देती है। समलैंगिक संबंध 'मधुर' का अतिप्रिय विषय लगता है, किसी न किसी रुप में ये आता ही है, चाहे 'पेज-3','ट्रेफिक सिग्नल','कॉर्पोरेट' हो या फैशन', हास्य से शुरुआत करके 'गे-वाद' को अब तो संजीदा तौर पर पेश किया जाने लगा है,फैशन डिज़ायनर्स के चरित्र का ये पक्ष समझना एक अबूझ पहेली ही है। प्रियंका चोपङा ने अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिया है,एक आशावादी लङकी से लेकर एक पतित निराशावादी युवती तक सारे चरित्रों को बखूबी सजीव किया है,कंगना बिगङैल,गुस्सैल, मनोरोगी के रोल इतने कर चुकी हैं कि लगता था सुधार की गुंजाईश ही नहीं, किंतु यहाँ उन्होने दिखा ही दिया कि ये चरित्र उनसे बेहतर कोई नहीं कर सकता, 'बाजवा' मे बहुत संभावना है, Summer-2007 के बाद ये एक और बेहतरीन कोशिश है, 'हर्ष छाया' की अटपटी संवाद अदायगी 'गे-चरित्र' को एक नया आयाम देती है, चित्रांशी('चक-दे फेम-कोमल चौटला) भी गिर पङ कर अभिनय सीख ही गयीं,कॉमेडी सर्कस(सोनी टी वी) की प्रैक्टिस काम आ गयी लगती है ;'मु्श्रान' मधुर की लॉबी के लॉयल अभिनेता बन चुके हैं और रोल-दर-रोल निखर रहे हैं, राज बब्बर पिता के रोल में खूब जमे हैं,मुग्धा गोडसे अपने रोल में बखूबी फब रही हैं, 'चक-दे' के बाद शायद ये एक और उल्लेखनीय नारी प्रधान फिल्म है, और 'फैशन' की दुनिया में भले ही 'Models are Treated Like Hangers!' किंतु यहाँ उनको अभिनय दिखाने का भरपूर मौका मिला है,कुल मिलाकर फिल्म इस साल की 'Show-Stopper' है, और 'बूम' जैसी 'फैशन-प्रधान' फिल्मों कि लिये एक सबक भी।
यहाँ तालियों का बङा शोर है, यहाँ याद आती है माथे पे थप्पी;
यहाँ पीठ ख़जर,गले मुस्कुराहट, यहाँ याद आती है,जादू की झप्पी;
अरसा हुआ,खुल के एक लफ्ज़ बोले, यहाँ याद आती है,कक्षा की चुप्पी;
हज़ारों नज़र नश्तरों सी चुभे हैं, नदारद मोहल्ले की वो लुका-छुप्पी।
'रुपक'
"जब सपने टूटते हैं तो उनकी गूँज का असर गहरा होता है.."
"सपने देखते हैं तब हमें कोई नहीं बताता कि उनके बदले हमें कितना कुछ खोना पङेगा.."
नहीं नहींमैं पाँचवीं कक्षा का हिंदी का कोई प्रश्नपत्र हल नहीं कर रहा हूँ "सपने" शब्द का वाक्यों में प्रयोगवाला। ये तो सपनों की दुनिया की हकीकत बताने वाली बहुचर्चित फिल्म 'फैशन' के 'आदि' 'मध्य' और अंत' के वो संवाद हैं जो पूरी फिल्म का खाका बयान करते हैं, प्रबंधन के छात्रों को पूरा B.C.G. Matrix और Product Life Cycle समझाने वाली फिल्म है फैशन,छोटे शहर में रहकर बङे सपने देखने और उन्हें पूरा करने का माद्दा रखने वाली 'मेघना माथुर' की कहानी बङे शहर की भीङ में खो जाने वाली कहानी नहीं है,'मेघना' के सपने भरपूर उङान भरते हैं,लेकिन तभी तक जब तक वो अपनी पहचान कायम रख पाती है, पहचान आसमान में उङते हुए कदम ज़मीं पर रखने की, पहचान मॉडल बनने की चाहत रखने वाली हज़ारों लङकियों से अलग होने की,पहचान सफलता से अधिक अपने अस्तित्व,अपने नारीत्व,और आत्म-सम्मान को महत्ता देने की,
दुनिया की नज़रों मे 'मेघना' अपनी सफलता का चरम तब हासिल करती है जब वो 'शोनाली' को उसके आसन से पदच्युत कर देती है, या मेघना के ही शब्दों में "ऐसा लग रहा था कि सारी दुनिया को मेरे अलावा कुछ दिखायी ही नहीं दे रहा था" , किंतु असल में उसका पतन तो तभी शुरू हो जाता है जब वो 'मानस' से आवेश में ये बोलकर घर छोङ देती है कि 'सफलता के बारे में हमेशा वही लोग भाषण क्यों देते हैं जिन्होंने सफलता कभी हासिल ही नहीं की' और 'मानस' के जवाब '...क्योंकि वो सफलता के पीछे पागल नहीं होते' को अनसुना कर देती है , बाहर की आवाज़ को अनसुना करते ही शुरु होती है उस सफलता की अंधी दौङ जिसके मानदंड और मापदंड न भागने वाले को पता होते हैं, न भगाने वाले को, मंज़िल और रास्ते दोनों ही मायने खो देते हैं,और सफर की परिणति होती है आत्मपलायन पर, 'मेघना' भागती है वहाँ तक जहाँ "उसे खुद की भी आवाज़ सुनायी न दे" पतन के चरम बिंदु पर,भटकी हुई 'मेघना' और 'छोटे शहर की मेघना' का सामना होता है, और आत्मग्लानि संजीवनी का काम कर जाती है, 'अपने आप से अपना ही साथ छूट जाने' का बोझ ढो रही 'मेघना' को उसके पिता 'फिसलकर फिरसे उठने' की ताकत देते हैं,और शुरु होती है वो लङाई जहाँ सफलता किसी और के चश्मों,खाँचों,और परिभाषाओं की मोहताज नहीं रह जाती।
सपनों के सपने से बाहर आकर बात करें तो कहना होगा 'मधुर तुमने फिरसे कर दिखाया', मुख्य धारा के वास्तविक सिनेमा के पर्याय बन चुके मधुर अपने पुराने प्रयासों से कहीं भी उन्नीस नहीं पङे हैं,उच्च वर्ग की बनावटी,खोखली ज़िंदगी की परतें मधुर हमेशा ही खोलते रहे हैं,उच्च वर्ग की चमक-दमक के नीचे छुपी सङाँध दिखाते समय एक मध्यमवर्गीय की द्रष्टि साफ दिखाई देती है। समलैंगिक संबंध 'मधुर' का अतिप्रिय विषय लगता है, किसी न किसी रुप में ये आता ही है, चाहे 'पेज-3','ट्रेफिक सिग्नल','कॉर्पोरेट' हो या फैशन', हास्य से शुरुआत करके 'गे-वाद' को अब तो संजीदा तौर पर पेश किया जाने लगा है,फैशन डिज़ायनर्स के चरित्र का ये पक्ष समझना एक अबूझ पहेली ही है। प्रियंका चोपङा ने अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिया है,एक आशावादी लङकी से लेकर एक पतित निराशावादी युवती तक सारे चरित्रों को बखूबी सजीव किया है,कंगना बिगङैल,गुस्सैल, मनोरोगी के रोल इतने कर चुकी हैं कि लगता था सुधार की गुंजाईश ही नहीं, किंतु यहाँ उन्होने दिखा ही दिया कि ये चरित्र उनसे बेहतर कोई नहीं कर सकता, 'बाजवा' मे बहुत संभावना है, Summer-2007 के बाद ये एक और बेहतरीन कोशिश है, 'हर्ष छाया' की अटपटी संवाद अदायगी 'गे-चरित्र' को एक नया आयाम देती है, चित्रांशी('चक-दे फेम-कोमल चौटला) भी गिर पङ कर अभिनय सीख ही गयीं,कॉमेडी सर्कस(सोनी टी वी) की प्रैक्टिस काम आ गयी लगती है ;'मु्श्रान' मधुर की लॉबी के लॉयल अभिनेता बन चुके हैं और रोल-दर-रोल निखर रहे हैं, राज बब्बर पिता के रोल में खूब जमे हैं,मुग्धा गोडसे अपने रोल में बखूबी फब रही हैं, 'चक-दे' के बाद शायद ये एक और उल्लेखनीय नारी प्रधान फिल्म है, और 'फैशन' की दुनिया में भले ही 'Models are Treated Like Hangers!' किंतु यहाँ उनको अभिनय दिखाने का भरपूर मौका मिला है,कुल मिलाकर फिल्म इस साल की 'Show-Stopper' है, और 'बूम' जैसी 'फैशन-प्रधान' फिल्मों कि लिये एक सबक भी।
यहाँ तालियों का बङा शोर है, यहाँ याद आती है माथे पे थप्पी;
यहाँ पीठ ख़जर,गले मुस्कुराहट, यहाँ याद आती है,जादू की झप्पी;
अरसा हुआ,खुल के एक लफ्ज़ बोले, यहाँ याद आती है,कक्षा की चुप्पी;
हज़ारों नज़र नश्तरों सी चुभे हैं, नदारद मोहल्ले की वो लुका-छुप्पी।
'रुपक'
Comments
On a serious note..its a gud movie...no doubt. Could be better...Madhur needs to raise the bar..if he wanna anywhere closer to his al time best Page3. The movie drags a bit in second half and its quite predictable.
But as U said...kudos to both Priyanka and Kangna for stupendous performance.
Adding to ur climax-kavita:
Itnii acchi samiksha likhii hia ki denaa chahtaa hun tujhe pappi.....
Naughty Boy..haathon me....BEHAVE Rupakk..Behave!!! :)
Keep penning...C ya.