एक वर्ष और बीत गया, हर वर्ष की भाँति समय की चौखट पर फिर क़दमों की रफ़्तार मंद हो चली है, थोङी बेचैनी, थोङी उदासी, कुछ झूठी सच्ची उम्मीदें, और गठरी भर अधूरे वादे और सपने,
...आग़ाज़!, शुरूआत!, शुभारंभ!,उदघाटन!, ये शब्द बङे रंगीन से हैं, रोशन और आशा से भरे, रोंगटे खङे करने वाले, सिहरन पैदा करने वाले,जज़्बा जगाने वाले, जज़्बात झंझोङने वाले,
...किस्मत, नियति, होनी, सांत्वना, दिलासा, पु(निर्माण)(प्रयास), ...ये शब्द बङे सादे हैं, भगवान पर छोङने वाले, बेफिक्र करने वाले, दर्शन जगाने वाले, भावुक बनाने वाले,
समय की चौखट पर भावनाओं का सागर उमङ पङा है, क़दम बहक रहे हैं, कभी अल्हङ,कभी यायावर, लौट लौट कर ढूँढ रहे हैं वो पदचिह्न जो अमिट छाप छोङ गये हों दहलीज़ के इस पार, अफ़सोस!यादों की मरीचिका बना देती है कुछ धुँधले से चित्र और फिर उठती है टीस की क्या लेकर जायें नये साल में,क्या किया इस साल में? बस अब और नहीं, रुकते हैं इस बार, बैठाते हैं पंचायत, सुलझाते हैं मसले ताकि फिर न टीस उठे, विद्रोही मन कह उठता है...तब तक...'सूरज नहीं डूबने दूँगा'...
मैनें फंदे बना लिए हैं पर्वत से उसको पकङूंगा ,
सूरज नहीं डूबने दूँगा ,सूरज नहीं डूबने दूँगा।
कई वर्ष से देख रहा हूँ सूरज तुझको आते जाते,
समरसता की नीरसता को नीरवता में पर फैलाते,
आते स्वर्णिम किरणें लेकर सिंदूरी सपने दे जाते,
'कहाँ लुटा आए सब सोना?' कान पकङकर ये पूछूँगा
सूरज नहीं डूबने दूँगा ,सूरज नहीं डूबने दूँगा।
साल ढले की साँझ ढले मेरे हाथ अधूरे सपने होंगें,
इतनी ज़ोर से मारूँगा कि तुम चंदा से जा चिपकोगे,
दोगे दग़ा दिवाकर द्रग को, निशी दिवस यूँ ही लटकोगे,
नक्षत्रों नाराज़ न होना नव रवि का आह्वान करूँगा।
सूरज नहीं डूबने दूँगा ,सूरज नहीं डूबने दूँगा।
सत्ता के उल्लू चमगादङ जनता से न चिपक सकेंगे ,
दुष्चरित्र दृष्टि बध्दों के सदन न दुति से दमक सकेंगे
ठेंगे से इनके क्रिसमस ये छः का छींका फोङ ही देंगे,
और दंगे भङक गये तो रक्तिम रातों में मैं सो न सकूँगा,
सूरज नहीं डूबने दूँगा ,सूरज नहीं डूबने दूँगा।
नव प्रभात नव वर्ष नव सदी नव आशा नवनीत बँटेंगे,
पिघल पिघल ये पृण टपकेंगे जब प्रचण्ड विस्फोट घटेंगे
हटेंगे फिर चेहरों से चेहरे प्रतिमानों के प्रष्ठ फटेंगे,
हर निषेध निशि में निषिद्ध है निश्चय है ये तम हर लूँगा,
सूरज नहीं डूबने दूँगा ,सूरज नहीं डूबने दूँगा।
बैठ गया था मौन क्षितिज पर पक्षी कलरव करते थे,
पर्वत लगा तापने गर्मी पशुदल पद रव करते थे,
हरते थे विश्वास मेरा उपहास उलाहित करते थे,
मैं रहूँ सफल न रहूँ किंतु फिर भी यह द्रुढ संकल्प धरूँगा,
सूरज नहीं डूबने दूँगा ,सूरज नहीं डूबने दूँगा।
"रुपक"
(रची गयी दिसंबर 31, सन्-1999 में, हिंद-युग्म में प्रकाशित एवं पुरस्क्रत हुई सन्-2008 में)
Comments
Excellent write up. What better way of kicking off a BRAND-New year other than spurring urself on.. with this Kavita. You know very well... I'm as gud in Kavita(s) as Fardeen Khan in acting :) but still I loved this one. The way..poem follows the initial write up is excellent. And since it was written by u when u were PROBABLY in school..it makes it even more commendabale.
Keep penning.. and yes..
NAV-VARSH ki HAARDIK SHUBHKAAMNAYEN!
Luv,
Harjeet