जय हो!


ऑस्कर में 10 नामांकन,3 श्रेणियों में किसी भारतीय का नामांकन, 'Slumdog Millionair' ने नये कीर्तिमान रच डाले, 'तीसरी दुनिया' 'पिछङा देश' 'निर्धन' 'निम्न' अकिंचन' हतोत्साहित कर देने वाले संबोधन सुन-सुन कर हम इतने नकारात्मक हो गये कि फिल्म की भारतीयता पर प्रश्नचिह्न लगाने शुरू कर दिये, देखने के बाद जब लगा कि कहानी तो विशुद्ध भारतीय है तो बात आ ठहरी हमारी छवि को धूल-धूसरित करने के प्रयास पर,आये दिन विवाद होने लगा कि 'निर्धनता' को बेचा जा रहा है,भारतीयों को 'कुत्ता' कहा गया है,'डैनी बॉयल' ने स्पष्टीकरण दिया कि-"जैसे एक कुत्ता आँख मूँदकर शांत पङा रहता है, आने जाने वाले उस पर ध्यान तक नहीं देते, वैसे ही झोपङपट्टी का 'ज़माल' सब देखता,सुनता,अनुभव करता और सँजोता जाता है'।
कुछ लोगों ने 'विरोधियों' के विरूद्ध 'विद्रोह' का झंडा उठा लिया और 'डैनी बॉयल' का स्तुति गान करने लगे, प्रश्न उठा "भारत को भारत की छवि दिखाने के लिये हमेशा एक विदेशी की ज़रूरत क्यों पङती है?"; उदाहरण दिया गया फिल्म 'गाँधी' का; आज़ादी के 35 साल बाद तक किसी भारतीय को गाँधी पर फिल्म बनाने की क्यों न सूझी?
विवादों को परे रखकर प्रार्थना करते हैं कि कुछ 'पुरस्कार' झोली में आ जायें,इतिहास कहता है कि 'गोल्डन ग्लोब' की मुहर लगने के बाद फिल्म समालोचकों की प्रिय हो जाती है,और ऑस्कर की प्रबल दावेदार भी।प्रश्न उठता है सफलता का पैमाना ऑस्कर ही क्यूँ, ऐसा क्या ख़ास है 'ऑस्कर' में? हम क्यों नहीं बना पाते ऐसी प्रतिष्ठा अपने पुरास्कारों की?साल दर साल बढते पुरस्कार समारोह और फूहङ प्रस्तुतिकरण अधोपतन की ओर इशारा कर रहे हैं,विचलित होकर महान निर्देशक 'आशुतोष गोवारीकर' ने एक समारोह में यह प्रश्न उठाया? किंतु हे!टी॰आर॰पी॰ प्रेम़!
'विषय विचलित' 'प्रस्तुतीकरण प्रेमी' मीडिया सारा दिन कुछ चुनिंदा पंक्तियाँ दोहराता रहा खास तौर पर 'साज़िद ख़ान' की अभद्र भाषा, अभद्र्ता बिकाऊ है, शालीनता से सिर दर्द होता है, दर्शकों की दुहाई देकर 'साज़िद' बोल गये कि"मैं उनके लिये ही फूहङ बना हूँ", यहाँ टी॰ वी॰ के सामने बैठे दर्शक बाल नोच रहे थे 'समलैंगिक चुटकुलों' से हतप्रभ,बच्चों और बुज़र्गों के समक्ष किंकर्त्तव्यविमूढ।
सर्वश्रेष्ठ होने की प्रतिस्पर्धा ने बनाये 'पुरस्कार','पुरस्कारों' की विश्वसनीयता से बने 'सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार' अब पुरस्कारों के नाम पर उपजता है विश्वास, DVD के 'कवर पेज' पर लिखा 'ऑस्कर का ठप्पा' भरोसा दिलाता है, चुनाव को सरल बनाता है,वैश्विक स्तर पर ख्याति दिलाता है,इसलिये चिंतित हैं लोग भारत की छवि के बारे में।
'Slumdog Millionair' का 'पैमाना' 'खुला पैखाना' नहीं है,'अंधे-विकलांग बच्चे' चिङियाघरों में नहीं मिलते ये वही हैं जो मुंबई के प्लेटफॉर्म्स पर रोज़मर्रा दिखते हैं पर हम आँख मूंद लेते हैं, नाक बंद कर लेते हैं,सोच संकुचित कर लेते हैं, फिल्म में ये घटनाक्रम का हिस्सा हैं,न कि जबरन फिट किया गया 'आईटम नंबर', फिल्म सहसा ब्राज़ील की प्रष्ठभूमि पर बनी 'सिटी ऑफ गॉड' की याद दिलाती है, फिल्म में बहुत सटीक सांकेतिक भाषा का प्रयोग किया गया है, पैसों से भरा बाथ टब जहाँ सलीम अपनी अंतिम साँसें लेता है 'परिचय' और 'उपसंहार' की भाँति आता है और सलीम के जीवन का सार दिखाता है 'भौतिक लालसा' ; वहीं ज़मील का जीवन दर्शन 'निष्काम प्रेम' है, लतिका का चेहरा 'लक्ष्य' की तरह प्रयोग हुआ है और बार-२ दोहराया गया है,'करोङपति' का 'शो' एक दक्ष सूत्रधार की भाँति सारे बिखरे द्रश्यों को पिरोता जाता है,सहज अभिनय, कसा निर्देशन,रोचकता,फिल्म को ऑस्कर की श्रेणी में खङा करती हैं।
बस एक प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है, क्या सचमुच भारत में आज तक ऑस्कर श्रेणी की कोई फिल्म नहीं बनी?
कटु सत्य निर्वस्त्र ,निर्लज्ज,निर्धन,
'ये तुम हो' की तख़्ती लिये वो खङा है,
'नहीं जानता''कौन हो?''न सताओ़'
शतुर्मुर्ग सा सर ज़मीं में गङा है,
सपनों की तकिया, ख़यालों का बिस्तर,
मुखौटों में सोकर,सुकून सा मिला है,
हमें न दिखाओ कि औकात क्या है,
मशक्कत से रंगीन पर्दा बुना है।
रुपक

Comments

बड़ा गौरव का विषय है कि इतने पुरस्कार जीते हमारे देश ने.
ashit said…
nice review...but as I'm a fan of your poetry...the last 8 lines are amazing. But let's not get carried away by the Oscars and all that has been shown about India in the movie...it's a nice movie about not so nice facts about our country. Without denying the facts shown in the movie and it is a very well made movie by all means, I still fail to understand the selection process for Oscars. The movie is nominated for Oscars, Rehman's music is nominated for an award. I don't understand this. This compels me to think that the west rejoices in acknowledging anything that reinstates the fact that "we r the shithole of the world". C'mon now...how many of us (including AR Rehman himself) really think that his music in Slumdog is better than in Lagaan?? Now Lagaan was a movie of the triumph...Slumdog is not a movie of triumph it is a documentry on slumdwellers made by a Westerner...this movie is not really better than "Dharavi" (1992) made by an Indian on one of the world's largest slums which goes by the same name.
My problem is not with Slumdog Millionaire's story or its success. My point is, that it does not take a genius to understand the age old western perspective towards the 3rd world countries...which is forced to be changed due to the economic developments in such (asian) countries...but that the West always feels better in showing us our right place...whereas they fail to understand that this right place is no longer right...it is old...and we have a new right place in the world order...and if they don't understand this...really, should we even care??
sleepingghost said…
As we both know...that mostly my part of job is to compare it to Delhi Book Trust....lol..as always no questions about the poetry...the write up was informative and the questions pointed. Rupesh, bringing CITY of GOD in between and the way you represented the whole story in few line, you know what it is ?

It's WOW