कसमसाहट सी ,खलबली सी है,
शाम फिरसे धुली-धुली सी है,
रूठ कर लापता हुआ है दिन,
रात कर चुगली,अब भली सी है,ग़म,गिले,गालियाँ,ग़ुबार,गरज;
ग़ल्तियाँ,गाज,गनीमत,ग़फ़लत,दिल-दबा-तार्रूफ़-ए-ज़ुबाँ तो करो,
हर मकान ओट ढूँढते न फिरो।आज फिर ख़ाक हो गया मक़सद,
और का पाक़ हो गया मक़सद,
ऊपरी ताक हो गया मक़सद।
हो बदी ही सही,अपनी मर्ज़ी का करोहर मकान ओट ढूँढते न फिरो।
एक सपना हद-ए-नज़र वाला,
एक जज़्बात पुर-असर वाला,
एक बढा हाथ हो मन्नत जैसा,
इनकी तफ़्तीश में,मातम न करो,हर मकान ओट ढूँढते न फिरो।
खूब खायी ख़याल की खिचङी,
ख़्वाब के हर उबाल की खिचङी,बात से पेट भरा,गफ़लतों की गैस बनी,
हर अधूरे सवाल की खिचङी।भूख भागेगी,सच का कौर भरो,
हर मकान ओट ढूँढते न फिरो।हम मिसालों के मातहत जीते,
ज़िंदगी काटते फ़क़त जीते,दासताँ बनने की औकात कहाँ,
दासता की भरे दहशत, जीते।कर बगावत 'रूपक';पंख आज़ाद करो
हर मकान ओट ढूँढते न फिरो।'रुपक'
Comments
All d best....
Cheerss!!!