Rs. 268+VAT...उसने
बेफिक्री से पाँच
सौ का नोट
काले फोल्डर में
घुसा दिया, गाँधी
जी एक आँख
से वेटर की
प्रतीक्षा करने लगे,
फोल्डर वापस आया
तो गाँधी जी
के दो बंदर
पर्स के अंदर
चले गये, बुरा
न सुनने वाला
बंदर दस के
नोट की शकल
में वापस वेटर
के साथ चला
गया, आज वो
सुनने के मूड
में नहीं था।
"मैदे
की डबल रोटी
में सफेद गोंद
डालकर सब्ज़ियों के
टुकङे चिपका देते
हैं, शायद कोई
इत्र भी डालते
हैं" ऐसा ही
बताया था उसने
माँ को फोन पर,
जब पहली बार
पिज़्ज़ा खाया था,
दोस्त की ट्रीट
थी, उसके बाद
उसे लत लग
गयी,शुरु शरु
में वो लार
बहाता आया करता
था, और कभी
कभी आँसू बहाते,
आखिरी के कुछ
ट्रिप में वो
सुन्न सा आने
लगा, उसे पता
नहीं होता कि
क्यूँ आया, बेफक्री
से मेन्यू के
किसी भी नाम
पर ऊँगली रख
देता, और आर्डर
लेट होने की
चाहत में चारों
ओर आँखे घुमाता,
यहाँ उसे बेहतर
लगता था, ड्रिंक
न करने वालों
की मधूशला था
ये 'पिज़्ज़ा शॉप'
; पाप करने जैसी
फीलिंग तो आती
लेकिन खाने की
तलब भी थी।
'May I Serve You!' लाल कपङे में
स्मार्ट सा दिखने
वाला लौंडा यही
बोलकर दो टुकङे
परोस देता।
"न न !बस
माँ पेट फट
जायेगा" "क्या हुआ
रे तेरी भूख
को, वज़न देख
अपना, बाहर से
खाकर आया क्या
फिरसे आज?" घर
में रोज़ भण्डारा
खुल जाता था,
मना करते करते
भी दो चार
रोटियाँ खाना ही
पङता, तब तो
खाना नहाने जैसा
सामन्य काम था,
कभी लगा नहीं
कि रोटियाँ भी
तीस रुपये की एक
मिल सकती हैं,
जेब पे इतनी
भारी पङेंगी कि
हलक से भी
खिसकेंगी नहीं।
सफर के रोज़
मिठाई के डब्बे
में माँ बीस
पूरियाँ और अचार
बाँध देती, हमेशा
मुश्किल होता ये
तय करना कि
लेदर वाली जैकेट
रख लूँ या
खाने का डब्बा,
माँ का दिल
रखने को वो
जैकेट पहनकर जाता,
मई में भी!
वैसे कमर पे
जैकेट बाँधो तो
माचो वाली फीलिंग
आती थी।
पूरी अचार वाले
एक्ज़ाम के टूर
का़मयाब हुए और
नौकरी लग गई,
घर से दूर,
बहुत दूर,इतनी
दूर की बीस
पूरियाँ कम थी
और चालीस बास
मारने लगतीं, और
फिर उसने माँ
का किचन छोङ
दिया।
चिली फ्लेक्स, पेपर, सॉस
इतना सब डालने
के बाद भी
सफेद गोंद वाली
डबल रोटी हलक
से नहीं उतर
रही थी, उसने
कोला गटका और
मैदे का टुकङा
पेट में ढकेल
दिया, वैसे ही
जैसे हर आने
वाले दिन को
अपनी ज़िंदग़ी की
कि़ताब में ठूँसे
जा रहा था,पन्ने पलटकर पढने
की न उसे
फुरसत थी , न
हसरत।
उसकी भाभी के
आने के बाद
भैया माँ से
कभी खुलकर प्यार
न जता सके,
भाभी अच्छी हैं
लेकिन वो भी
अपनी माँ को
मिस करती हैं,
भैया मां के
साथ रहते हैं,
पर शायद दूरी बहुत ज़्यादा हो गई है..
आज तीन लङकियों
की तस्वीर पापा
ने ई-मेल
की है, उसे
भी किसी लङकी
को उसकी माँ से दूर करना होगा,
और शायद ख़ुद
की भी, रिश्ते
भी सुविधा की
सफेद गोंद से
ज़िंदग़ी की डबल
रोटी में चिपके
हैं, निर्णय का
कोला ज़िंदगी को
उ्म्र की हलक
में ढकेले दे
रहा है, जाते
वक़्त उसने कोने
में लगा घण्टा
ज़ोर से बजाया,
इतना ज़ोर से
कि अंदर की
आवाज़ बहरी हो
गई।
'रुपक'
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