उर में उस्ताद हों


श्याम-पटल की सुप्त निशा से,
धवल-धूसरित शब्द प्रभा तक,
कुछ कुटैव अंकुर पर अंकुश,
दक्ष, समर्पित ज्ञान-क्षुधा तक,
दुष्ट, धृष्ट, पथ-भ्रष्ट, कष्टप्रद,
कठिन दिनों की सरल याद हो,
मन, मस्तिष्क, मृदा में गुरुवर,
रचे बसे उर में, उस्ताद हों।

युग निर्माता तुम, वशिष्ठ हो,
युग-रक्षक वाल्मीक विशिष्ट हो,
नीति-निपुण, कौटिल्य, द्रोण हो,
परमहंस से परम् मौन हो,
विश्व-विजय आह्वान अरस्तु,
आचरेकर से अथक प्रशिक्षु,
सर्वगुणसम्पन्न संदीपनी,
जीजाबाई की मुराद हो।
मन, मस्तिष्क, मृदा में गुरुवर,
रचे बसे उर में, उस्ताद हों।

मैकाले के काले अक्षर,
पंचतंत्र से क्या श्रेयस्कर ?
डरकर मारे रट्टे अच्छे,
या जो सीखा ग़लती करकर,
भरकर सड़ते ज्ञान घड़ों से,
सीख भली जो मिली बड़ों से,
धड़ों पे लगती ज्ञान मंडियो से,
'रूपक' की बुद्धि आज़ाद हो।
मन, मस्तिष्क, मृदा में गुरुवर,
रचे बसे उर में, उस्ताद हों।

रुपेश पाण्डेय 'रुपक'

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