रंगीन पर्दे की काली क्रांति: Disruption of Bollywood

2020 हम सभी के लिए एक क्रांतिकारी वर्ष रहा है, कॉर्पोरेट जगत में एक शब्द हालिया में काफी प्रचलित हुआ है 'disruptive' यह शब्द उन निर्णयों के लिए उपयोग किया जाता है जो साहसिक हों और स्थापित मानकों को चुनौती देते हों, उद्देश्य यह होता है कि कुछ ऐसा किया जाए कि एक नई व्यवस्था कायम हो सके, पुराने तरीकों से इतर। यह वर्ष भी कुछ ऐसा ही है, अचानक से आयी आपदा ने सबको समय से पहले और क्रांतिकारी रूप से नए तरीकों को अपनाने के लिए बाध्य कर दिया, अन्यथा कौन सोच सकता था कि सरकारी कामकाज भी इतनी जल्दी डिजिटल हो जाएगा, शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह ऑनलाइन हो जाएगी, बिना ट्रैन यात्रा के भी जीवन सहज रूप से चलता रहेगा, बिना ऑनलाइन फ़ूड आर्डर किये भी हम एक बेहतर और स्वस्थ्य जीवन जी पाएंगे, शायद जड़त्व से मुक्ति इसी रूप में मिलनी थी।

किन्तु इन सब कारणों से यह लेख नहीं लिख रहा हूँ, जिस disruption ने पिछले 3 महीनों में लोगों की सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है उसका कोरोना से सीधा संबंध नहीं है, हाँ यह मान सकते हैं कि कोरोना एक उत्प्रेरक है।

दादी और नानी माँ की रसोई में एक मान्यता चलती थी, जिसे आज भी मानते हैं कि जिमीकंद नामक कन्द का नाम ले लेने से खाते समय मुंह में खुजली होती है, इस बात का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, किन्तु आगे लिखते हुए मैं यह उपमा प्रयोग करना चाहता हूँ उन लोगों के लिए जिनको सांकेतिक रूप से संबोधित करूंगा, सीधा नाम लेने से पाठक पक्ष या विपक्ष चुन लेंगे और फिर वाद-विवाद की खुजलाहट से मूल विषय नैपथ्य में चला जायेगा।

बात शुरू होती है एक उभरते हुए प्रतिभावान सितारे की मृत्यु के समाचार से, यह खबर स्तब्ध कर देने वाली थी, और हर बार की भाँति इस बार भी आम-जन मीडिया की बनाई कहानी पर सहज विश्वास करके इसे आत्महत्या मानकर आगे बढ़ रहा था, हमने उन कारणों का थोड़ा विश्लेषण किया जो आर्थिक और सामाजिक तौर पर इतने सफल व्यक्ति के मानसिक अवसाद की वजह बने होंगे, किन्तु इस बार बात कुछ अलग थी, उस सितारे का भोला चेहरा बार-बार स्मृति में आ रहा था, अवसाद बढ़ रहा था, किंतु यही लगा कि शायद नियति यही थी, और हम आगे बढ़ रहे थे, जैसा कि विगत 30 वर्षों में ऐसी कुछ और आकस्मिक मौतों पर हुआ था, धीरे-धीरे घटनाएं नाटकीय मोड़ लेती हैं, परिवार जांच पर प्रश्न उठाता है, उसके बाद मीडिया की अदालत लगती है, बहुत चौंकाने वाली बातें सामने आती हैं, और अभी भी यह सब जारी ही है, हो सकता है कि यह आत्महत्या ही हो या फिर हत्या, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, किंतु इस घटना ने एक क्रांति ला दी है।

आरुषि और निर्भया कांड के बाद यह तीसरी ऐसी घटना है जो दिन रात मीडिया में छाई हुई है, इस हद तक कि अब लोग परेशान हो रहे हैं, कोई नतीजा न निकलने का डर भी सता रहा है, क्योंकि जांच की पराकाष्ठा के बाद भी यदि आरोपी बच जाएं, या एजेंसी की आंखों में धूल झोंककर किसी को बलि का बकरा बनाकर मामला निपटा दिया जाए तो न्याय से विश्वास पूरी तरह उठ जाएगा, लोग और डरकर जीने लगेंगे, और आतताई पूरी तरह निर्भीक हो जाएंगे।

इस सारी कवायद से कुछ ऐसा भी हुआ जो आजतक अकल्पनीय था, यदि कहा जाए कि फिल्मों से हमें क्या लेना-देना और जीवन में और भी विषय हैं, तो यह अतिशयोक्ति होगी, आत्मावलोकन करने पर हम पाएंगे कि हममें से कई लोगों का विशेष रूप से उस युवा का जो अपने सामर्थ्य के चरम पर होता है उसका, पूरा जीवन, दिनचर्या, सोच सबकुछ फिल्मों से बुरी तरह प्रभावित है, जो कि होना तो नहीं चाहिए, किन्तु सत्य है, एक फिल्म का ही संवाद है कि 'जब तक भारत में सिनेमा है, लोग मूर्ख बनते रहेंगें'।

अब disruption यह हुआ है कि सिनेमा-प्रेम और सितारों के प्रति अंध-श्रद्धा समाप्त हो रही है, और वह भी बहुत ही तेज़ी से, और बिना किसी भेद-भाव के, इस विरक्ति के बुलडोज़र की चपेट में न कोई महानायक बचा न कोई छद्म राष्ट्रवादी, और जिन अपराधी पृवत्ति के लोगों को जनता ने सर पर चढा रखा था, उनका हाल तो यह है कि यदि किसी सार्वजनिक समारोह में दिख जाए तो शायद चरण पादुकाओं से सुशोभित कर दिए जाएं। विचारों का यह बदलाव अच्छा संकेत है, काश की यह स्थायी हो और हमें फिरसे बहला फुसला कर फिर उसी दलदल में खींच न लिया जाए। 

दिनकर की 'कृष्ण की चेतावनी' में श्रीकृष्ण कहते हैं 'जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है'।
बहिष्कार से बौखलाए हुए बॉलीवुड पर यह पंक्तियां बहुत सटीक बैठ रही हैं, बड़े बड़े मठाधीशों का आसन हिल रहा है, और बदहवासी में यह अपनी कुत्सित मानसिकता का परिचय दे रहे हैं, क्या ही अच्छा होता कि अपनी गलतियों को स्वीकार करके फ़िल्म जगत से ही सुधार की आवाज़ उठती, किन्तु यह चुप्पी और कुतर्क इस बात को सिद्ध कर रहे हैं कि पूरा बॉलीवुड ही एक दलदल है, और वहां से जितना बाहर निकलना चाहो, गंदगी उतना ही अंदर खींच रही है, और सब एक साथ डूबना चाह रहे हैं, रंगीन पर्दा आये 60 वर्ष से अधिक हो गया, किन्तु अभी भी सोच ब्लैक एंड व्हाईट ही है, या तो इस तरफ या उस तरफ़, कोई मुद्दे के आधार पर अपनी सोच नहीं बनाना चाह रहा।

इस भीषण गुटबाजी के दौर में हमने एक अलग आवाज़ भी देखी, बहुत लोग उस महिला अभिनेत्री को सनकी, पागल, अवसरवादी बोलकर पल्ला झाड़ना चाहेंगे, फिर आत्मावलोकन का अवसर था, सही या गलत का, उन्होंने फिर ब्लैक एंड व्हाइट में देखा, मेरी तरफ या मेरे विरुद्ध, चलो माना कि वह अभिनेत्री सनकी है, किंतु नारीवाद का क्या हुआ ? एक हत्या की आरोपी (हो सकता है वह निर्दोष भी हो) पर नारीवाद का प्रवचन देने वाला शतुरमुर्ग समुदाय, खुले-आम लोकतंत्र का LOL तंत्र बन जाने पर न सिर्फ मौन रहा, किंतु तालियाँ भी पीटी गईं, चलिए इसे राजनीति के चश्में से भी नहीं देखते, क्या हम इतना ही प्रसन्न होते यदि यदि उस महिला जैसा अदम्य साहस हमारे घर की किसी महिला सदस्य ने दिखाया होता ? क्या हम तब भी अपनी उस 'मध्यकालीन पाशविक पुरुष प्रधानता का चोला ओढ़ लेते' और कहते 'अच्छा सबक सिखाया, ऐसा ही होना चाहिए था', यदि हाँ तो या तो हम सभ्य होने का दिखावा कर रहे हैं, हमारे मूल विचार में अभी भी वही पाशविकता है, जो कहती है कि यदि कोई हमें अप्रिय लगने वाली बात कहे तो हिंसा पर उतर आओ, उस विरोधी आवाज़ को बंद कर दो, चाहे कुछ भी करना पड़े ? निर्लज्जता से खुले-आम लोकतंत्र का ऐसा उपहास होता देखकर भी हम नकार नहीं सकते कि उस अभिनेत्री ने सब कुछ अपनी क्षमता से उपार्जित किया था, आत्मनिर्मित परिश्रमी व्यक्ति के लिए  भी वर्तनी में जो शब्द मिला वह 'परुषार्थ' है, अतः शायद उस महिला की उपलब्धियों केलिए कोई नया शब्द गढ़ना होगा, तब तक मूकदर्शक बना विरोधी समाज इस उपलब्धि को 'उद्दण्डता' ही कहेगा। उस अभिनेत्री ने बहुत सही कहा 'समय का पहिया घूमेगा', सबके लिए घूमेगा।

परीक्षा का एक और क्षण आया, फिर अवसर मिला सही या गलत चुनने का, एक बड़बोले और किसी समय बहुत प्रतिभाशाली रहे निर्देशक पर #metoo का आरोप लगा, यह सिलसिला इसी छद्म बुद्धिजीवी वर्ग ने कुछ वर्ष पहले प्रारम्भ किया था, किसी पर भी 10-20 वर्ष बाद आरोप लगा दो, उसकी छवि तार-तार कर दो, यहाँ फिर प्रश्न सही या गलत black or white का नहीं है, जो मानदंड कुछ वर्ष पहले थे, अब वह व्यक्ति विशेष के लिए बदल क्यों रहे हैं ? इस परीक्षा में भी दोगले चरित्र वाला बॉलीवुड fail होता नजर आ रहा है। एक चाटुकार महिला अभनेत्री ने तो उस दिग्दर्शक को नारीत्व का पर्याय बता दिया, यदि आप उस प्रतिभावान निर्देशक की फिल्में उठाकर देखें तो आप स्वयं समझ जाएंगे कि महिला का चित्रण किस रूप में किया गया है, हाल ही में चर्चित वेब सीरीज हों या प्रारम्भ में सफल हुई फिल्में, उनके लिए एक सशक्त महिला का पर्याय रहा है सुरापान, ड्रग्स, और सारे अनैतिक कार्य जो सामाजिक मान्यताओं को धता बताएं, मेरी बात पर विश्वास मत करिए, पूरी सूची उठाकर स्वयं अवलोकन कीजिए, क्या सशक्त महिला का तात्पर्य यही है ? क्या आप अपने परिवार में ऐसा ही सशक्तिकरण चाहते हैं ?

जैसे रावण ने साधु का रूप धरकर सीताहरण किया था, वैसे ही अपनी छवि खराब होने पर सीधे तौर पर तो यह सितारे जनता के सामने आने योग्य बचे नहीं, और इनमें घमंड इतना कूट-कूट कर भरा है कि इन्हें यह स्वीकार करने में बहुत कष्ट होगा कि पॉपकॉर्न और समोसे के लिए सोचने वाले ये असहाय मध्यम वर्गीय नौकरीपेशा लोग, हमारा भविष्य कैसे तय कर सकते हैं, इसलिए एक महान अभिनेता की सांसद पत्नी के शब्दों में उस तिरस्कार का भाव इन शब्दों में परिलक्षित हुआ कि 'हम बहुत सारा टैक्स देते हैं, हम दान देते हैं, social media पर हमारी छवि को protect किया जाए' इन शब्दों में अहंकार की बू आती है, और हमेशा प्रशंसा के आदी रहे इस सितारों को लगता है कि यह आम जनता हमारे सामने तुच्छ है।

अब यह cricket के विज्ञापनों में आकर हमें लुभाएंगे, तय हमें करना है, क्या ड्रग्स के आदी किसी सितारे का हेल्थ ड्रिंक्स का प्रचार करना सही है ? क्या हम उस व्यक्ति के कहने पर बीमा करवा लें जिसके घर में ड्रग्स का नशा चलता हो ? आप गौर से IPL देखिएगा, और इस नई सोच के साथ उन ADS को देखिएगा, शायद कुछ उत्पादों से घृणा हो जाएगी। यदि किसी को आदर्श बनाना ही है तो क्यों न उन शिक्षकों, चिकित्सकों, सेना के जवानों, किसानों, सफाईकर्मियों को बनाया जाए जो प्रतिदिन कड़ी मेहनत करते हैं, महीनें में यदि आप 2000 रू. भी फिल्म न देखकर बचा लें तो साल का 24,000 रु. बचा ले जाएंगे, इसमें न जाने कितनी ज्ञानवर्द्धक पुस्तकें आ जाएंगी, एक kindle आपके ज्ञान का भंडार खोल देगा, या कोई और सदुपयोग कर पाएंगे।

अब ज्ञान चक्षु खुल रहे हैं तो कुछ दिन कुछ अच्छा पढ़ा जाए, या समय का सदुपयोग स्वास्थ्य अच्छा करने में किया जाए, कुछ नया सीखा जाए, फिल्में नशा थी पर सब उस नशे में डूबे थे, नशा नाश का कारण है, धीमा नशा धीरे-धीरे नाश करेगा, पर करेगा ज़रूर, नशा छोड़ा न जा सके पर कम तो किया ही जा सकता है, बहुत समय बचेगा, और शायद हम एक बेहतर मनुष्य भी बन सकेंगे।

शकल पर मुखौटा, शकल या मुखौटा,
जो तुम देखते हो, वो चेहरा है झूठा,
लूटा गया है हर उस आदमी को,
जो सम्मोहनों की नज़र से न छूटा,
परत दर परत जब उतरने लगी है,
ये सच की सुई शोर करने लगी है,
न फिरसे उसी पाश में जा के फंसना,
नया स्वाद खोजेगी 'रूपक' की रसना।

रूपेश पाण्डेय 'रूपक'
#BoycottBollywoodMovies

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