सतत अनवरत अन्वेषण से,अकस्मिक भी मिल जाता है

सतत अनवरत अन्वेषण से,

अकस्मिक भी मिल जाता है,

जैसे रत्नाकर के भीतर,

अद्भुत मोती मिल जाता है।


न्यूटन ने क्या सेब फलों पर, वर्षों-वर्ष तपस्या की थी?

या फिर एडिसन की काया, पानी में डूबी रहती थी ?

वाल्मीकि ने पद्य रचे क्या क्रौंच दया पारंगत होकर ?


था यह बस 'Eureka! का पल, 

नित प्रयास में निष्फल होकर।

नयन-नरेन निरंतर खोजे,

परमहंस भी मिल जाता है,

सतत अनवरत अन्वेषण से,

अकस्मिक भी मिल जाता है,

जैसे रत्नाकर के भीतर,

अद्भुत मोती मिल जाता है।


प्राची से प्रतीची तक जैसे, प्रौढ़ प्रभाकर हो जाता है,

प्रतिभा का चंचल मृग गजधर, अविरत चलकर हो जाता है,

मिल जाता है लक्ष्य, निरन्तर थककर भी न रुकने से।

तम के महत्तम पर ही रूपक,

दीपज्योति से खिल जाता है

सतत अनवरत अन्वेषण से,

अकस्मिक भी मिल जाता है,

जैसे रत्नाकर के भीतर,

अद्भुत मोती मिल जाता है।

©रूपेश पाण्डेय 'रूपक'

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