कौटिल्य का क्रोध


कर्कश, क्रोधी कटु वचन, विषधर तीर समान,
वृक्ष वृहद प्रतिशोध का, अंकुर है अपमान।

क्रोध करो तो यूँ करो, जैसे विष्णुगुप्त,
कटुता में कौटिल्यता, शक्ति चन्द्रगुप्त।

राजयोग में जन्म था, था राजा का योग,
माता को असह्य था, सुत का सदा वियोग।

तोड़े अपने दांत स्वयं, राजयोग हट जाए,
अतिकुरुप काया रहे, मातृ कष्ट मिट जाए।

नहीं मिटा करते मगर, नियति के अभिलेख,
महानंद दरबार में, पहुंचे भिक्षुक वेश।

महानन्द ने कर दिया, भरी सभा अपमान,
नंद अंत का प्रण लिया, खोल शिखा बंधान।

ज्यों कृपाण का अर्थ नहीं, हो वानर के पास,
क्रोध समझ से यदि रहे, रच सकता इतिहास।

क्रोध हुआ जब अंकुरित, सिंचित प्रण का नीर,
शिष्य मिला तब चंद्रगुप्त, बुद्धि निपुण और वीर।

शिक्षा का संचार था, और अटल उद्देश्य,
प्रथम प्रयास में पिट गए, गए निकाले देश।

विचरण करते मिल गयी, खिचड़ी खाते सीख,
वार किनारों पर करो, मिले केंद्र पर जीत।

महानन्द का धूसरित, फिर कर दिया घमण्ड,
मौर्यवंश की कीर्ति रही, सदियों सदी प्रचण्ड।

क्रोध कराता कार्य कठिन, यदि सधा हो लक्ष्य,
चिढ़ना, चढ़ना, चीखना, नहीं क्रोध के दृश्य।

क्रोध राम ने जब किया, लंका का था अंत
क्रोध कृष्ण ने जब किया, भूमिपतित था कंस।

दुर्योधन के क्रोध का कारण था अपमान,
पर भूला प्रतिशोध में नारी का सम्मान।

अंत क्रोध का क्रोध हो, ज्वाला जलती जाए,
पांचाली का प्रण रण में, कुरुक्षेत्र ले जाये।

जारी हैं वर्चस्व के, अब भी जग में युद्ध,
कभी क्रुद्ध है रूस तो, कभी चीन है क्रुद्ध।

है शक्ति का संतुलन, जागृत ज्वाला स्त्रोत,
जाने किस दिन जल पड़े, तृतीय युद्ध की ज्योत।

'रूपक' सच्चा क्रोध है, जैसे जलधि विशाल,
शक्ति का अनुमान है, शांत, संयमित चाल।

©रूपेश पाण्डेय 'रूपक'

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