गुम कहीं दूर कोने में, पर्वत की चट्टानों पर,
सुन मधुर बांसुरी का स्वर, गौ के खुर की तानों पर।
जब लगे लौटने घर को, ढँककर विहंग अम्बर को,
यह देख किया दीपक ने, जाज्वल्यमान घर-घर को।
नव-दिवस पुनः रविकर ने, झाँका तरु की झुरमुट से,
सब उठे त्याग फिर शैया, सुन वेणु हरि के पुट से।
प्रकृति की यह रमणीयता, नेत्रों में रस सा घोले,
फिर मूँद लोचनों को मन, रस पीता होले-होले।
तंद्रा को तोड़ अचानक, एक तीक्ष्ण तीर चुभता है,
जब वाहन का कोलाहल, दो कर्णों में घुसता है।
नयनों के रस में विष सा, बस धुँए-धूल का हमला,
रिस-रिस कर बिधता जाता, अवसाद रोग का गहरा।
पोषण में भी है शोषण, सब खाद्य रसायन सिंचित,
बर्गर, पिज़्ज़ा से बच्चे, स्थूल, सुस्त, अविकसित।
क्यों थल पर जल का है अभाव, क्यों चिटकी भूमि का कटाव,
इन व्यथित भयातुर चेहरों पर,आ पाते क्यों न सहज भाव।
मुर्गी-अंडे की गाथा, है दवा और बीमारी,
बनती जाती औषधियाँ, बढ़ती जाती बीमारी।
प्रकृति प्रदत्त पादप में, सब रोगनाशकी लक्षण,
किन्तु उपहास बनाते, यदि जी लो सादा जीवन।
कैसे विचित्र हम मानव, बस आत्मनाश अभिलाषी,
अनवरत लड़ें प्रकृति से, बनने को भोग-विलासी।
और अंतकाल सब पाकर, जीते निर्धन सा जीवन,
अक्षम अशक्त काया और, बस दो रोटी का भोजन।
'रूपक' अल्ब्ध लगती अब, सरिता तट वाली निजता,
है बहुत यदि रह जाये, वह जल, वह तट, वह सरिता।
©रूपेश पाण्डेय 'रूपक'
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