एक दिन सब मर ही जायेंगे

एक दिन सब मर ही जायेंगे, 
मैं भी, तुम भी, ये भी, वो भी।
शरद पूर्णिमा, गंगा जल से,
नहीं टलेगी अंतिम वेदी।

बात बहुत कड़वी लगती है,
कहने में मिर्ची लगती है,
सुनकर सुन्न करे कानों को,
तृष्णा ही अच्छी लगती हैं।
किन्तु न कहकर फिर जाने से,
कालचक्र न रुके फ़रेबी।
एक दिन सब मर ही जायेंगे, 
मैं भी, तुम भी, ये भी, वो भी।
शरद पूर्णिमा, गंगा जल से,
नहीं टलेगी अंतिम वेदी।

सिंहासन संघर्ष रहेगा,
बना रहेगा 'मैं' का झगड़ा,
तनी हुई नंगी तलवारें,
रिपुदमन का चस्का तगड़ा।
शांत चित्त निश्चिन्त नियंत्रित,
किस क्षण होगा मन आवेगी ?
एक दिन सब मर ही जायेंगे, 
मैं भी, तुम भी, ये भी, वो भी।
शरद पूर्णिमा, गंगा जल से,
नहीं टलेगी अंतिम वेदी।

किया हुआ करते जाएंगे,
आएंगे किरदार निभाने,
वही मंच है, वही पटकथा,
वही विदूषक, पिटे पुराने।
किन्तु न पट के गिर जाने तक,
करतल स्वर की चाह मिटेगी।
एक दिन सब मर ही जायेंगे, 
मैं भी, तुम भी, ये भी, वो भी।
शरद पूर्णिमा, गंगा जल से,
नहीं टलेगी अंतिम वेदी।

स्वजनों को उर से चिपटाकर,
जर, ज़मीन, प्रासाद बनाकर,
नयन गड़ाकर सम्पत्ति पर,
उत्तरतम अधिकार जताकर,
क्या प्रसन्न हो यम कह देंगे,
आयु तेरी अमर रहेगी ?
एक दिन सब मर ही जायेंगे, 
मैं भी, तुम भी, ये भी, वो भी।
शरद पूर्णिमा, गंगा जल से,
नहीं टलेगी अंतिम वेदी।

तो क्या करूँ ? हिमालय जाऊं ?
ब्रह्म तपस्या ध्यान लगाऊं,
जब मनुष्य बन जन्म लिया है,
मानव का उपहास उड़ाऊँ,
कटु सत्य कंटक है 'रूपक'
मत कह, कहकर बात बढ़ेगी।
एक दिन सब मर ही जायेंगे, 
मैं भी, तुम भी, ये भी, वो भी।
शरद पूर्णिमा, गंगा जल से,
नहीं टलेगी अंतिम वेदी।
©रूपेश पाण्डेय 'रूपक'

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