दीपक जलकर बुझ गये, बुझी न मन की आग;
सात पहर की वासना, एक पहर बैराग।
चकाचौंध की कौंध में , नयन-निलय आकाश;
फिरसे क्षितिज निहारते, बिसर गये क्या पास।
ख़ुशियाँ जैसे फुलझङी, संकट जैसे बम;
जितना भी बचते रहो, अभी फटेगा 'धम्म'
कोना कोना झाङकर आज बुहारा घूर;
फिर भी कुछ तो सङ रहा, बदबू है भरपूर।
जैसे तम निश्चिंत है , अनल ज्योति के पास;
वैसी भ्रष्टाचार की मची हुई बकवास।
उत्सव सुरा समान है, जब तक मिले न 'स्वर्ग'
कब आया कब चल दिया, उभर गये उत्सर्ग।
'रुपक' भी मदमस्त है, चल भागें उस ओर;
अंत न हो इस दौङ का, कभी मिले न छोर।
रुपेश पाण्डेय 'रूपक'
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