ग़म खाकर, गुस्सा पीकर
जब पेट भरा तब पाँव चले,
अपने-अपने घाव लिए,
सब अपने-अपने गाँव चले।
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निश्चल मन का स्वप्न नहीं था,
यूँ नितांत निर्वासित होना,
दो स्थानों में बँट जाना,
निज तन से निष्कासित होना
स्वेद समाहित अश्रु गिरे थे,
दिखे न सबको भाव भले।
अपने-अपने घाव लिए,
सब अपने-अपने गाँव चले।
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न प्रभात का अर्घ्य दिया,
न संध्या बाती भजन सुना,
न आँगन की खाट धँसा,
न खाया ताज़ा पका भुना
कीट पतंगों तिलचट्टों सा,
यापन करने किस चाव चले ?
अपने-अपने घाव लिए,
सब अपने-अपने गाँव चले।
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सारे उत्सव, सारे सुख दुख
मृगतृष्णा की भेंट चढ़े,
जलते-बुझते नयन पिपासु,
घन बरसे या जेठ चढ़े,
विषुवत वन के पादप जैसे,
शीतोष्ण में जलें गलें
अपने-अपने घाव लिए,
सब अपने-अपने गाँव चले।
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पथिक पलायन पीड़ाप्रद पर,
पुनर्वास पर प्रश्न प्रचुर हैं,
तब नियति निष्ठुर थी,
अब अवसरवादी नीयत निष्ठुर है।
निज निर्भर, निजता प्रियतर,
'रूपक' खग नीड़ पड़ाव चले ।
अपने-अपने घाव लिए,
सब अपने-अपने गाँव चले।
रूपेश पाण्डेय 'रूपक'
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