खिचड़ी वाला मेला


खिचड़ी वाला मेला,

भरता था हर साल जहाँ;

गगन चूमता, चमचम करता,

नया बन गया मॉल वहाँ।

***

मेले में एक इंतज़ार था,

सब्र का मीठा फल था वो,

मॉल में एक बेचैनी सी है,

आज परोसा कल का ज्यों।

धक्का-मुक्की, हंसी ठिठोली,

सबसे बोली, सबसे मेल;

भूल-भुलैया, मिट्टी-धूल,

कीचड़,कुत्ते, रेलम-पेल।

कंघी, बटुआ, लाई-लड़ुआ

धन का मायाजाल कहाँ।

खिचड़ी वाला मेला,

भरता था हर साल जहाँ;

गगन चूमता, चमचम करता,

नया बन गया मॉल वहाँ।

***

मॉल कराता भेद, जताता,

किसकी क्या औकात नहीं,

ब्राण्ड बड़ा तो, बड़ा आदमी,

बड़ी सोच या बात नहीं।

रजतपटल के स्वर्ण द्वार में,

अंदर बैठे अहंकार में,

सुन्न संवेदी निर्विचार में,

आडम्बरी आकण्ठ उधार में,

बचपन के वो यार कहाँ

खिचड़ी वाला मेला,

भरता था हर साल जहाँ;

गगन चूमता, चमचम करता,

नया बन गया मॉल वहाँ।

***

क्या अब फिरसे भर पायेगा,

खिचड़ी वाला वैसा मेला,

जिसमें कोई अकिंचन न हो,

न ही कोई फिरे अकेला,

बालसुलभ गुदगुदी प्रतीक्षा,

दिन के बढ़ जाने की इच्छा,

कागज़ के रंगीन खिलौने,

परंपरागत नैतिक शिक्षा।

'रुपक' App है ऐसा कोई,

हों install वो साल जहाँ,

खिचड़ी वाला मेला,

भरता था हर साल जहाँ;

गगन चूमता, चमचम करता,

नया बन गया मॉल वहाँ।

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